
न अपील, न दलील, हो रही शराफ़त जलील – खंडेलवाल ने सुनाई आपातकाल की असली कहानी सत्ता की सनक थी आपातकाल, कांग्रेस ने आज तक माफ़ी नहीं मांगी: सांसद खंडेलवाल” हथकड़ियों की झंकार सुनो जनतंत्र की ललकार सुनो न चली है, न ही चलेगी
तानाशाहों की सरकार सुनो- इस गीत को याद करते ही देश में 1975 से 1977 का आपातकाल का वो काला समय स्मरण हो आता है जब जेलों में ठूँसे गए लोग दिल्ली की तीस हज़ारी कोर्ट में तिहाड़ जेल से कैदियों की बस में सुनवाई के लिए आते थे और उनके हाथों में हथकड़ी बंधी होती थी ।इस गीत की हर पंक्ति, हर स्वर, आज भी हमारे सीने में ज्वालामुखी बनकर धधक रहा है। ये बंदी कोई क़ातिल या मुजरिम नहीं थे बल्कि भारत में लोकतंत्र की हत्या करने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का साहस करने वाले लोग थे जिन्हें हथकड़ियाँ पहना कर तिहाड़ जेल से तीस हजारी कोर्ट बंदूकों की संगीनों के साये में लाया जाता था- बताया चाँदनी चौक से सांसद श्री प्रवीन खंडेलवाल ने जिन्होंने इस जैसे अनेक दृश्यों को अपनी आँखों से देखा था क्योंकि उनके ताऊजी स्वर्गीय श्री सतीश चंद्र खंडेलवाल एवं पिताश्री श्री विजय खंडेलवाल भी आपातकाल बंदी के तौर पर दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद रहे थे। उनका परिवार दिल्ली के हजारों आपातकाल के सताए हुए परिवारों में से एक है।
श्री खंडेलवाल ने कहा कि भारत के लोकतंत्र की सबसे शर्मनाक तारीख 25 जून 1975 -आज से पचास साल पहले आज ही के दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया था। यह वह दिन था जब संविधान को बेदर्दी से कुचला गया और पूरे तौर पर गिरवी रख दिया गया, जनता की आवाज को दबा दिया गया और सत्ता के नशे में भारत के संविधान की हत्या करते हुए लोकतंत्र को मसल दिया गया।भारत को एक खुली जेल बना दिया गया। बोलने पर पाबंदी, लिखने पर पहरा, विरोध करने पर जेल और इंसान की गरिमा को पैरों तले कुचलने का भयावह दौर।
उन्होंने याद करते हुए कहा कि चांदनी चौक और पुरानी दिल्ली ने इस तानाशाही की सबसे भयानक कीमत चुकाई। कुछ ही कदम दूर, तुर्कमान गेट की गलियों में निर्दोषों को गोलियों से भून दिया गया, घरों को बुलडोज़रों से रौंदा गया, महिलाओं और बच्चों को सड़कों पर गिराया गया और पूरे इलाके को खामोशी से तबाह कर दिया गया।किसी को बोलने की आजादी नहीं थी और जो बोला उसको बंदूकों के बटों से बुरी तरह मारा गया। यह तो सत्ता की क्रूरता का नग्नतम स्वरूप था।तुर्कमान गेट कोई गली नहीं,
यह लोकतंत्र की मज़ार है, जहाँ आज भी संविधान सर झुकाकर खड़ा है।
श्री खंडेलवाल ने बताया की लोगों से कहा गया कि यदि जीना है तो नसबंदी करवाओ।सड़क चलते आदमी को पकड़ कर नसबंदी कैम्प में उसकी जबरन नसबंदी कर दी गई। विरोध करने पर गोलियां चलीं। कहा जाता है कि रात को शव ट्रकों में भरकर रिंग रोड की ओर फेंके गए।घरों के चूल्हे तक नहीं बचे। हज़ारों लोग उखाड़ कर बाहर फेंक दिए गए। उनकी चीखों की कोई गवाही नहीं थी, और न कोई सुनवाई।
न अपील है – न दलील है
हो रही शराफ़त जलील है- आपातकाल के बंदियों द्वारा उस समय गाई जाने वाली ये दो लाइन ही उन हालातों को बयान करने के लिए काफ़ी है ।
श्री खंडेलवाल ने कहा कि *जिन्होंने यह आदेश दिए वे आज भी इतिहास के कटघरे में सज़ा से बचे हुए हैं और उनके वंशज संविधान और लोकतंत्र पर ज्ञान देते हैं* । शर्मनाक है कि कांग्रेस पार्टी ने इस क्रूरता को कभी स्वीकार नहीं किया। न कोई माफ़ी, न कोई जांच। यह लोकतंत्र नहीं था, यह सत्ता की सनक थी।
श्री खंडेलवाल ने कहा की आज, जब हम संसद में बैठते हैं, जब हम संविधान की बात करते हैं, जब हम भारत को लोकतंत्र की जननी बताते हैं, तो हमें तुर्कमान गेट के उन घरों की चीखें याद रखनी होंगी। वे चीखें जो बताती हैं कि सत्ता जब संविधान से ऊपर खुद को मान लेती है, तब वह सिर्फ अत्याचारी होती है।
तुर्कमान गेट सिर्फ एक घटना नहीं थी। यह उन लोगों की चिता थी जिनकी गलती बस इतनी थी कि वे गरीब थे, आवाज़ उठाते थे और अपने घर बचाना चाहते थे।
आज 50 वर्ष बाद भी, कांग्रेस उस खून से सनी मिट्टी को भूल चुकी है। लेकिन हम नहीं भूलेंगे। न तुर्कमान गेट को, न आपातकाल को, न उन मासूमों की आखिरी चीख को-क्योंकि लोकतंत्र को बचाने के लिए यादों को ज़िंदा रखना जरूरी है ।
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